इम्तिहान का प्रेशर था और माहौल भी थका देने वाला, तो एक दिन सबने मिलकर तय किया कि आज खीर बनेगी। सबने जुगाड़ लगाया – कहीं से दूध, कहीं से चावल, और किसी के पास बची हुई मेवे ले आईं। रूम में एक अदद भगोना था, उसमें दूध चढ़ाया, हँसते-गाते… कोई फिजिक्स का फॉर्मूला समझा रहा था, कोई बोल रहा था, “देख लो खीर बिगड़ मत जाए, वरना बाबा ढाबा ही जाना पड़ेगा!”
दूध में चावल डाले, इलायची और थोड़ी सी चीनी, साथ में जोक्स – “तेरी इन कड़छियों में पढ़ाई कम, ख्वाब ज्यादा पकते हैं!” गाना बजने लगा, “तुमसे मिलके ऐसा लगा, खीर खाइए…” कमरे में मीठी खुशबू और पूरी गैंग की हंसी गूंजने लगी। खीर गाढ़ी हुई, ऊपर से मेवे डाले, एक-दूसरे को खिलाने का मज़ा कुछ अलग था।
हर बाइट में यादों का स्वाद था। तभी किसी ने कहा, “अरे नैनी के रेवां रोड वाले बाबा ढाबा की खीर याद है? वो मिट्टी की कटोरी और वो अनोखा टेस्ट! हमारे इलाहाबाद में बिना बाबा की खीर के मिठास अधूरी है।” हम सबने कसम खायी – कभी मौका मिला तो सब साथ बाबा ढाबा चलेंगे, वहीं बैठकर फिर वही पागलपन दोहराएंगे।
आज जब घर में चावल की खीर बनाती हूं, पुराने हॉस्टल के कमरे की दीवारों, दोस्तों की बातें और बाबा ढाबा की वो महफिल, सब आँखों के सामने तैर जाते हैं। जिंदगी आगे निकल गई, लेकिन दोस्ती, हॉस्टल, और खीर की मिठास हमेशा दिल में बसी है।
पूरो खीर बनाने की रेसिपी यहाँ से देख सकते हैं https://www.youtube.com/watch?v=UmXH3BQlA-E
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