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निमोना और मेरा बचपन: गाँव की गलियों से शहर की राह तक



गाँव की धूल भरी गलियाँ, जहां सूरज की पहली किरण भी झोपड़ियों के बीच से लड़ते-लड़ते आती थी, वहीं मेरा बचपन बीता। 1990 के दशक का वो दौर, जब बच्चे छोटे छोटे कामों में हाथ बंटाते थे, मगर दुनिया बड़ी लगती थी।

मैं, गुड़िया, उस गाँव की एक सामान्य परिवार की बेटी थी। हमारा घर टिन की छत वाला, मिट्टी की दीवारों वाला था। चूल्हे की राख में छिपी हुई यादों के बीच रोज़मर्रा की कसक और संघर्ष भी थे, लेकिन साथ ही बचपन की नादान हँसी भी।

गरीबी हम पर एक छाया की तरह पड़ी रहती थी। स्कूल के लिए कक्षा की किताबें जुटाना मुश्किल होता, मगर माँ कहतीं—
"बेटा, पढ़ाई से बड़ा सहारा कोई नहीं।"

मेरा सबसे प्यारा दोस्त था निमोना, जो मेरे पड़ोस में रहती थी। निमोना का चेहरा हमेशा खिलखिलाता रहता, वो मोरनी की तरह हरदम पॉज़िटिव और उम्मीदों से भरी। हम दोनों साथ में बरसात की पहली बारिश में भीगते, खेतों में छिपे झरनों तक जाते।

"तू बड़े शहर जाएगी, गुड़िया?" निमोना मुझसे पूछती।
"हाँ प्यारी, एक दिन," मैं जवाब देती, "हम सबकी किस्मत बदलनी है।"

उन 90 के दशक की बरसातें और खेतों की मिट्टी अभी भी मेरी यादों में ताजा हैं। लेकिन गरीबी की हकीकत भी सच्ची थी—कभी घर में रोटी कम पड़ जाती, कभी पढ़ाई के लिए पैसे। तब भी मैं सपने देखती थी कि कैसे मेरी कलम से गाँव के किस्से दुनिया को छूएंगे।

समय गुज़रता गया, मैं बड़ी हुई, पढ़ाई में आगे बढ़ी और शहर चली आई। अब मेरी उम्र 35 साल है। शहर की बहादुरी और हिम्मत ने मुझे एक लेखिका बना दिया, जो गाँव की उन चमकती हुई यादों को लिखती है।

निमोना? वह आज भी गाँव में है, पर हमारे दिल जुड़े हैं। वो अपनी खुशमिजाज अदाओं से गाँव की बच्चियों की मदद करती है। बार-बार फोन पर हम अपनी बीती बरसातों, उस छत्ते के नीचे बिताई हँसी और गुलाब जामुन के स्वाद में खो जाते हैं।

उन दिनों की गरीबी ने मेरी लेखनी को तराशा, और निमोना ने मुझे सिखाया कि जिंदादिली कभी नहीं मरती।
हम बचपन में जो रखा था—सपनों की राखी, कंवल की तरह खिलता हुआ विश्वास—आज भी हमारे ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताकत है।

और शायद यही मेरी सबसे बड़ी कहानी है: गरीबी में पलती हिम्मत, बरसात में भीगती यादें, और बचपन की वो दोस्ती जो उम्र भर साथ चलती रही।

https://youtu.be/AImoSBBz3Ic


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